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________________ आत्मीय बलके इतने उन्नत हो जानेकी अवस्थामें फिर उसको धातु पाषाणकी मूर्त्तिके पूजनादिकी वा दूसरे शब्दोंमे यों कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिये मूर्त्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी नहीं रहती; बल्कि वह रूपस्थध्यानके अभ्यास में परिपक्क होकर और अधिक उन्नति करता है और साक्षात् सिद्धोंका चित्र भी खींचने लगता है जिसको रुपातीतध्यान कहते हैं । इसप्रकार ध्यानके बलसे वह अपनी आत्मासे कर्ममलको छांटता रहता है और फिर उन्नतिके सोपानपर चढ़ता हुआ शुक्लध्यान लगाकर समस्त कर्मोंको क्षय कर देता है और इस प्रकार आत्मको प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय इसका यह है कि मूर्तिपूजन आत्मदर्शनका प्रथम सोपान है और उसकी आवश्यकता प्रथमावस्था (गृहस्थावस्था ) हीमें होती है | बल्कि दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जितना जितना कोई नीचे दर्जेमें है, उतना उतना ही जियादा उसको मूर्त्तिपूजनकी या मूर्त्तिका अवलम्बन लेने की जरूरत है । यही कारण है कि हमारे आचायने गृहस्थोंके लिये इसकी खास जरूरत रक्खी है और नित्यपूजन करना गृहस्थोंका मुख्य धर्म वर्णन किया है । सर्वसाधारणाधिकार । भगवज्जिनसेनाचार्यने श्री आदिपुराण ( महापुराण ) मे लिखा है कि"दानं पूजा च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् । धर्मश्वतुर्विधः सोऽयमानातो गृहमेधिनाम् ||" - पर्व ४१, लोक १०४। अर्थात्-दान, पूजन, व्रतोंका पालन ( व्रतानुपालनं शीलं ) और पर्व के दिन उपवास करना, यह चार प्रकारका गृहस्थोंका धर्म है ।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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