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मुनिवंशदीपिका। रचे जैन ग्रंथ और जग जस लीनों है ॥ प्रथमानुजोगमैं कयौ है पुन्य पाप फल, करणानुजोगमैं त्रिलोक दरसीनौं है । चरणानुजोग मुनि श्रावक अचार भेद, दरवानुजोग आतमीक रस भीनौं है ॥ ४७॥ ऐसें मुनिवंशदीपिकाको वरनन कियौ, गुरुनकी जैसी करतूति सुनि लही है। पिछले समैकी बात ग्रंथनमें अवदात, सोई मैं करी विख्यात जानौं याही सही है । जब गुरुकुलइतिहास सुनिव आवै, तब मन भावे जैनपंथ झूठा नहीं है। ऐसी परतीतसे जगत विपरीत लागै, याहीतें गुरोंकी नाममाला हम कही है ॥४८॥
ग्रन्थकर्ताका परिचय । देश कुरुजांगलमै वसे हैं अनेक पुर, सिरी हस्तनागपुर जैनहीको धाम है । ताहीकी पछांहमाहिं कांधलानगर एक, तामै मेरे गुरु जाको भूधरजी नाम है ॥ ताके हम शिष्य परतच्छ जग जानत है, चलन गृहस्थ कहिवेको यति राम है । दास नैनसुख अरदास करै संतनसौं, रची मैं सुधारौ तुम थारौ यह काम है ॥४९ ॥ विक्रमको संवत उन्नीससौ छबीस अब, भाद्रपदतनी वर्तमान तिथि कारी है। पांचै भृगुवार अश्वनी नक्षत्रकेमँझार, रचना जमक जोरि मोरिकै सुधारी है । जौली नभमाहिं भानु मंडल मृगांक रहै, जौ लौ कनकाचल अचल अविकारी है ॥ तोलौं भवि जीवनके कंठमैं उद्योत करो, गुरुनकी नाममाला आशिप हमारी है ॥ ५० ॥
इति श्रीमुनिवंशदीपिका समाप्ता ।