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काशी निवासी कविवर बाबू वृन्दावनजी कृत
गुरुस्तुति ।
शैर ।
जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे । संसार विषमखारसौं जिन भक्त उधारे ॥ टेक ॥ जिनवीरके पीछें यहां निर्वानके धानी । वासठ वरपमें तीन भये केवलज्ञानी ॥ फिर सौ वरमें पांच ही श्रुतकेवली भये । सर्वांग द्वादशांगके उमंग रस लये || जैवंत ॥ १ ॥ fae बाद वर्ष एक शतक और तिरासी । इसमें हुए दशपूर्वरयार अंगके भासी ॥ ग्यारे महामुनीश ज्ञानदानके दाता । गुरुदेव सोइ देहिंगे भविवृन्दको साता || जैवंत ॥ २ ॥ तिसवाद वर्ष दोय शतक बीसकेमाहीं ।
मुनि पंच ग्यार अंगके पाठी हुए यांहीं ॥ तिस बाद वरप एकसौ अठारमें जानी । मुनि चार हुए एक आचारांगके ज्ञानी ॥ जैवंत ॥ ३ ॥ तिम बाद हुए हैं जु सुगुरु पूर्वके धारक । करुणानिधान भक्तको भवसिंधुउधारक || करकंजतें गुरु मेरे ऊपर छाँह कीजिये । दुखदको निकंदके, अनंद दीजिये ॥ जैवंत ॥ ४ ॥ जिनवीरके पीछेस वरष छहसौ तिरासी । तब तक रहे इक अंगके गुरुदेव अभ्यासी ॥