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तब उन्होंने भी दोनों प्राभृतोंका अध्ययन करके प्रथम पांच खंडोंकी अड़तालीस हजार श्लोक परिमित टीका अतिशय सुन्दर सुकोमल संस्कृत भाषा में बनाई । पीछे से उन्होंने द्वितीय सिद्धान्तकी व्याख्या लिखना भी प्रारंभ की थी, परन्तु द्रव्यादि शुद्धिकर- प्रयत्नों के अभाव से उनके एक सघर्मी (मुनि ) ने निषेध कर दिया । * जिससे वह नहीं लिखी गई ।
इसप्रकार व्याख्यानक्रम ( टीकादि ) से तथा गुरु परंपरा से उक्त दोनों सिद्धान्तों का बोध अतिशय तीक्ष्णबुद्धिशाली श्री शुभनन्दि और रविनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ । ये दोनों महामुनि भीमरथ और कृष्णमेणा नदियों के मध्य में बसे हुए रमणीय - उ कलिका ग्रामके समीप सुप्रसिद्ध अगणबल्ली ग्राम में स्थित थे । उनके समीप रहकर श्रीवपदेवगुरुने दोनों सिद्धान्तोंका श्रवण किया और फिर तज्जन्यज्ञानसे उन्होंने महाबन्ध खंडको छोड़कर शेष पांच खंडोंपर व्याख्याप्रज्ञाप्ति नामकी व्याख्या बनाई । उसमें महाबन्धका संक्षेप भी सम्मिलित कर दिया । पश्चात् कषाय प्राभृतपर प्राकृतभाषामें साठ हजार और केवल महाबन्ध खण्डपर आट हजार पांच श्लोक प्रमाण, दो व्याख्यायें रचीं ।
कुछ समय पीछे चित्रकूटपुर निवासी श्रीमान् एलाचार्य
* यथा मूल पुस्तके - विलिखन् द्वितीयसिद्धान्तस्य व्याख्यां सधर्मणा स्वेन । द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धम् ॥ १६९ ॥
१ श्री कुन्दकुन्दाचार्यका भी अपर नाम एलाचार्य प्रसिद्ध है । क्या ये ८४ प्राभृतग्रन्थोंके कर्त्ता कुन्दकुन्दाचार्य से भिन्न है ?