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सिद्धान्त तत्त्वोंके ज्ञाता हुए। उनके समीप वीरसेनाचार्य ने समस्त सिद्धान्तका अध्ययन किया और उपरितम ( प्रथम ) निबंधनादि आठ अधिकारों को लिखा । पश्चात् गुरु भगवानकी आज्ञासे चित्रकूट छोड़कर वे वाट ग्राममें पहुंचे। वहां आनतेन्द्र के बनाये हुए जिनमन्दिर में बैठकर उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति देखकर पूर्वके छह खंडों में से उपरिम बन्धनादिक अठारह अधिकारोंमें सत्कर्म नामका ग्रन्थ बनाया और फिर छहों खंडोंपर ७२००० श्लोकों संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्र धवल नामकी टीका बनाई । और फिर कषाय प्राभृतकी चारों विभक्तियों (भेदों ) ? पर जयधवल नामकी २० हजार लोक प्रमाण टीका लिखकर स्वर्गलोकको पधारे। उनके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्रीजयसेन गुरुने चालीस हजार श्लोक और बनाकर जयधवल टीकाको पूर्ण की. जयधवल टीका सब मिलकर ६० हजार श्लोकों में पूर्ण हुई ।
इस प्रकार से श्रीइन्द्रनन्दियतिपतिने भव्यजनों के लिये श्रुतपंचमी के दिन ऋषियोंद्वारा व्याख्यान करने योग्य इस श्रुतावतारका निरूपण किया । इसमें यदि मुझ अल्पबुद्धिने आगमके विरुद्ध कुछ लिखा हो, तो उसे आगम तत्त्व जाननेवाले पुरुषोंको संशोधन कर लेना चाहिये । इस प्रकार दो अनुष्टुप् एक शार्दूलवृत्त और १८१ आर्यावृत्तों के द्वारा २०७ श्लोक संख्या में यह ग्रन्थ पूर्ण किया है |
इति श्रुतावतार कथा समाप्ता ।