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( ३४ ) तुम जयी कहलाते हो । यह भी विजय है और विजय आनन्दके राजमार्गका अंश है।
संज्ञानसे सदा आनन्द मिलता है क्योंकि यह अच्छे मन्त्रीका काम देता है और प्रत्येक कार्यमें हमारा उपदेशक और पथदर्शक है । जब कोई व्यक्ति बल या दिखावेकी युक्तिसे काम लिए विना अपने संज्ञान वा अन्तःकरणपर भरोसा करके उसकी सम्मति ग्रहण कर सकता है, तब वह सच्चा आनन्द अनुभव करने लगता है। परन्तु मनुप्यको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि उसका संज्ञान बिगड़ा हुआ न हो, इससे वह बुरे काम करेगा और उसका संज्ञान जो पहले उसको रोकता था अब परास्त हो जाएगा और बुरे कामोंके बार २ करनेसे उसमें बान पड़ जाएगी और अपने संज्ञानके उपदेशपर कुछ भी ध्यान न देगा । जो मनुष्य अपना जीवन समर्पण, सरलीकरण और विजयके अनुसार व्यतीत करना चाहता है और अपने भीतरी शुद्ध अन्तःकरणपर चरनेसे दिनपर दिन उत्तम बननेका यत्न करता है, वह संज्ञानपर पूरा २ भरोसा कर सकता है । वह सांसारिक लोगोंके कहनेकी कुछ परवाह नहीं करता और अपने संज्ञानकी सम्मतिपर चलता है। यह मंज्ञान उसका भीतरी आत्मा है जो उसके घटमें बोल रहा है और इसके पट खोलकर देखनेसे उसको सम्यग्ज्ञान हो जाता है ।
सच्चा आनन्द व्यक्तिगत नहीं है । सच्चा आनन्द उन्हींको प्राप्त होता है जो दया और प्रेमके द्वारा औरों को भी उत्तम बनाना चाहते हैं और समष्टिके आनन्दमें ही अपना आनन्द ढूंड़ते हैं और इतर मनुष्योंके सुखमें ही अपना सुख अनुभव करते हैं।