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( २६) पहन सकते हैं; माली घास पात उखाड़कर ही पेड़ोंको बढ़ा और फैला सकता है; मूर्खताके दूर करनेसे ही बुद्धिमत्ता आती है । इसी प्रकार पवित्र जीवन भी स्वार्थ और विषयभोगके त्यागनेसे ही प्राप्त हो सकता है। __ पहले पहल यह त्याग और हानि बड़ी भारी और दूभर प्रतीत होती है और इस त्यागसे अन्तमें जो लाभ और परमसुख प्राप्त होता है, मनुष्य उसे स्वार्थ और मोहके वशमें होकर इस समय अनुभव नहीं कर सकता । देखो जब कोई मद्यप ( शराबी) मद्य पीनेका त्याग करना चाहता है, तो उसे कुछ कालतक कैसा भारी दुःख होता है और वह अनुभव करता है कि अब मेरा बड़ा सुख चला; परन्तु जब उसकी पूर्ण जीत हो जाती है, जब मद्यपानकी इच्छा सर्वथा नष्ट हो जाती है और जब उसका मन शान्त होकर मद्यपानमें तनिक भी प्रवृत्त नहीं होता, तब जाकर उसे यह जान पड़ता है कि मैंने अपना स्वार्थविषयक सुख त्याग करनेसे अनगिनत और अनन्त लाभ उठाए हैं । अर्थात् उसने वह वस्तु तज दी है जो पाप और मिथ्या थी और जो पास रखनेके योग्य नहीं थी, वरन् उस वस्तु के रखनेमें निरन्तर दुःख ही दुःख मिलता था; अब उसके स्थानमें सुशीलता, वश्यता, मनकी शान्ति और संयम प्राप्त किया है, और यह नई वस्तु पुण्य और सत्य ही है, जिससे उसको अत्यन्त लाभ पहुंचा है।
सचा त्याग यही है । और जितने सच्चे त्याग हैं, वे सब पहले पहल दुःखदायी होते हैं, और इसी कारण मनुष्य इस सच्चे त्यागसे डरते और परे मागते हैं । वे अपने खार्थसम्बन्धी भोगके त्यागने और उसको पराजय करनेमें कुछ भी लाभ और प्रयोजन