________________
( २७ ) नहीं देखते; उन्हें उसका त्याग ऐसा भासता है जैसे कि किसी मिष्टान्न या सुखका खोया जाना, विष या दुःखका ग्रहण करना
और सर्व प्रकारके आनन्दको हाथसे दे बैठना। ___ मनुष्यको चाहिये कि बड़ी प्रसन्नता और नम्रतासे और लोगोंको सुख पहुंचानेके लिए अपनी खार्थसम्बन्धी बान और रीतोंको त्याग दे और इसके बदलेमें अपना लाभ न चाहे और अपने भलेकी आशा न रक्खे, अर्थात् औरोंको निष्काम लाभ पहुंचानेके आशयसे अपने स्वार्थको छोड़ दे; वरञ्च अपना आनन्द और अपने प्राणतक भी देनेके लिए उद्यत रहे, यदि ऐसा करनेसे वह संसारको अधिक सुन्दर, रमणीय और परम आनन्दका धाम बना सके । अब प्रश्न यह है क्या उसे इस त्यागसे सचमुच हानि पहुंचती है ? क्या कृपणको वर्णकी लालसाका त्याग करनेसे हानि पहुंचती है ? क्या चोरको चोरी करनेकी बान छोड़नेसे हानि पहुंचती है ? क्या लुच्चे या व्यभिचारीको अपने निकम्मे विषयभोगोंके छोड़ देनेसे हानि पहुंचती है ? खार्थके सर्वथा वा एकदेश त्यागनेसे किसी मनुष्यको हानि नहीं पहुंचती; फिर भी वह यह विचार करता है कि मुझे ऐसा करनेसे हानि पहुंचेगी और इसी विचारके कारण उसे दुःख और कष्ट सहने पड़ते हैं । इस दुःख सहनेमें ही त्याग है और इस हानिमें ही लाभ है। ___ सम्पूर्ण सच्चा त्याग भीतरी त्याग है; यह आत्मोत्सर्ग और गुप्त त्याग है और हृदयकी अतीव नम्रतासे उत्पन्न होता है । आत्मोत्सर्ग या आपेको त्यागनेसे ही कुछ लाभ पहुंच सकता है और जो मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं उनकी कभी न कभी यही दशा होगी । अब प्रश्न यह है कि यह आत्मोत्सर्ग किस