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___कविवर भूधरदासविरचित- २१, रहैं हठसों जरते ॥ इहिभांति विचच्छन अच्छनके . वश, होय अनीति नहीं करते । परती लखि जे धरती निरखें, धनि हैं ! धनि हैं ! धनि हैं ! नर ते ॥ ५८ ॥
दिढ शीलशिरोमनकारजमें,जगमें यश आरज तेइ लह । तिनके जुग लोचन वारिज हैं, इहिभांत अचा, रज आप कह ॥ परकामनिको मुखचंद चित, मुंद
जाहिं सदा यह टेव गहें । धनि जीवन है तिन जीवनको, धनि माय उन उरमांझ बह ॥ ५९॥
कुशीलनिन्दा।
मतगयन्द संवया । जे परनारि निहारि निलज्ज, हसै विगसें बुधिहीन बड़ेरे । जूठनकी जिमि पातर पखि, खुशी उर कूकर । होत घनेरे ॥ है जिनकी यह टेव सदा, तिनको इह,
भी अपकीरति है रे। ह परलोकविपं दृढ़दंड, कर शतखंड सुखाचलकेरे ॥ ६० ॥
व्यसनसेवी।
छप्पय । ६ प्रथम पांडवा भूप, खेलि जूआ सब खोयो । मांस, खाय बकराय, पाय विपदा बहु रोयो ॥ विन जाने
१ आर्य, श्रेष्ठ । २ कमल । ३ माता । ८ धारण करे। ५ आदत । छ ६ “ह परलोक विषै विजुरी सु.-'' ऐसा भी पाठ है। ७ वज्र दड । ॐ ८ सुखरूपी पर्वतके। JanamaARCH 200000 preovagress Pascoverest
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