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जैनशतक ।
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चोरीनिषध।
छप्पय । चिंता तजै न चोर, रहे चौंकायत सार । पीटै धनी विलोक, लोक निर्दइ मिलि मारे । प्रजापाल करि कोप, तोपमों रोप उड़ावै । मेरै महा दुखपेख, अंत नीची गति पावै ॥ अति विपतिमूल चोरीविसन, प्रगट त्रास आवै नजर । परवित अदत्त अंगार गिन, नीतिनिपुन परसें न कर ॥ ५६ ॥
परस्त्रीसेवननिषेध । है कुगतिवहन गुनगहनदहन दावानलसी है । सुजम
चंद्रधनघटा, देहकृशकरन खसी है ॥ धनसरसोखन धूप, धरमदिनसांझ समानी । विपतभुजंगनिवासबांबई बेद वखानी ॥ इहिविधि अनेक आंगुनभरी, प्रानहरनफाँसी प्रवल । मत करहु मित्र ! यह जान जिय, परवनितासों प्रीति पल ॥ ५७ ॥
स्त्रीत्यागप्रशंसा।
दुर्मिल संवया । दिवि दीपकलोय वनी वनिता, जड़जीव पतंग है जहां परते । दुख पावत प्रान गँवावत हैं, बरजे न
१ दूसरेका धन । २ विना दिया। ३ मुयशरूपी चन्द्रमाको ढकनक । १ लिये बादलोकी घटा । ८ क्षयीरोग । ५ धर्मरूपी दिनका अन्त करने ॐ वाली संध्या। ६ सांपके रहने की बावी । ७ आकाशमे। ८ दीपककी 8
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