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( ३० ) सत्यके प्रकाश और श्रेयको अपने बाहर और अपने परे न ढूंडो, वरञ्च अपने भीतर खोजो; सत्य तुम्हें अपने धर्म या कृत्यके सूक्ष्म और अविस्तृत गोलमें और तुम्हारे अपने हृदयके गुप्त और छोटे २ त्यागोंमें ही मिलेगा।
(ग) आनन्दका मार्ग। आनन्द संसारमें एक लोकविरुद्ध वस्तु है । आनन्द प्रत्येक भूमिमें उत्पन्न हो सकता है और प्रत्येक दशामें मिल सकता है । आनन्द बाह्य पदार्थोंमें विद्यमान नहीं है, परन्तु भीतरसे ही उपजता है। आनन्द आत्मिक सुख है और भीतरी जीवनका बाह्य विकास है। जैसे कि प्रकाश और तेज प्रकट होकर सूर्य के द्योतक हैं इसी प्रकार परम आनन्द या पूर्ण सुखसे शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है । जिसका मन शान्त और हृदय पवित्र है, उसका शरीर कदापि दुर्मतिके तापसे तप्त नहीं होता । जो मनुष्य अपने धर्मपर स्थित है यदि उसको सूलीपर भी चढ़ाया जाए, तो उसको वह आनन्द होगा जो राजाको अपने राज्यसिंहासनपर भी नहीं मिल सकता। मनुष्य आप ही अपने आनन्दका उत्पादक है अर्थात् जो मनुष्य अपने जीवनको परम धर्म और उत्कृष्ट नियमोंके अनुसार व्यतीत करता है, पूर्ण आनन्द उसीको प्राप्त होता है । जो कुछ कि मनुष्य औरोंसे सीखता है वह केवल प्राप्ति या एक प्रकारका लाभ है, पर सच्चा लाभ या उन्नति वही है जो कुछ कि मनुष्य अपने यनसे आप ग्रहण करता है । जब आत्मा शुद्ध होकर अपने आ