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जैनग्रन्थरत्नाकरे
घनाक्षरी छन्द । जाकों भोग भाव दीस कार नागको फन,
गजको ममाज दीग्य जैसो रजकोष है । जाको परवार को बढाव घगवध मृझ.
विप उन्ब मौजको विचार विषपोप है ।। लमै यो विमति ज्या भममिको विभूति कह.. ___ बनता विदाममै विलोके दृ दोष है। सो जान त्याग यह महिमा विगगताकी. नाहीको वैगग मही ताक दिग मोप है ॥ २ ॥
इन अधिकार समाप्रम अथ उपदेश गाथा ।
उपेन्द्रवत्रा। जिनेन्द्र प्रजा गुरुपर्युपास्तिः सत्त्यानुकम्पा शुभपात्रदानम। गुणानुगगः श्रुतिगगमम्य नृजन्मवृक्षम्य फलान्यमुनि ?
मत्तगयन्द। के परमेश्वरकी अाचा विधि. मो गुरुको उपमन की। , दीन बिलोक दया याग्यि चिन, प्रामुक दान पनाह दी। ।। । गाहक हो गुनको गहिये, मचिों जिन आगमको रस पीन। य करनी करिय प्रटमै यम. यो जगम नरमीफल लीने ॥ ३॥ :
निर्वागणी । त्रिसंध्यं देवाची विरचय च यं प्रापय यशः
श्रियः पात्र वापं जनय नयमांग नय मनः । ----- -..."":' +--+-+-+-+-+-+-+-+ 4