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बनारसीविलासः
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चैतन्यं विषसंनिधेरिव नृणामुजासयत्यासा ॐ धर्मस्थाननियोजनेन गुणिभिमा॑ह्यं तदस्याः फलम् ७६
नीचहीकी ओरकों उमंग चलै कमला सो;
पिता सिंधु सलिलखभाव याहि दियो है । रहै न सुथिर हे सकंटक चरन याको; ___ वसी कंजमाहिं कंजकैसो पद किया है ॥ जाको मिलै हितसों अचेत कर डारे ताहि; ___ विपकी बहन तातै विपकैसो हियो है।
मी ठगहारी जिन धरमक पंथडारी; ____ करके सुकृति तिन याको फल लियो है ।। ७६ ॥
दानाधिकार. चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युननि __ पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमम् । पुण्यं कन्दलयत्यघं दलयति स्वर्ग ददाति ऋभानिर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रे धनम् ७७
३१ मात्रा सवैया छंद । चरन अखंड ज्ञान अति उज्जल; विनय विवेक प्रशम अमलान ।। * अनघ मुभाव मुकृति गुन संचय; उच्च अमरपद बंध विधान
आगमगम्य रम्य तपकी रुचि; उद्धत मुकति पंथ सोपान । - ये गुण प्रघट होंय तिनके घट; जे नर देहिं सुपत्तहिं दान७७ * ༼**སྨ-།***དཱི༼མདཱི**''' མ****༼རྩོམ་
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