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मातृपितृसहोदरपुत्रकलत्रादिबन्धुसन्दोहः ।
जीवस्य न सम्बन्धो निजकार्यवशेन वर्तन्ते ॥२१॥ अर्थ-माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि वन्धुजनोंका समूह अपने कार्यके वश ( मतलबसे ) सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थमें जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं। अण्णोअण्णं सोयदि मदोत्ति ममणाहगोत्ति मण्णंतो। अप्पाणं ण हु सोयदि संसारमहण्णवे बुड्।।२२।।
अन्यः अन्यं शोचति मदीयोस्ति ममनाथकः इति मन्यमानः ।
आत्मानं न हि गोचति संसारमहार्णवे पतितम् ॥ २२ ॥ अर्थ-ये जीव इम संसाररूपी महासमुद्र में पड़े हुए अपने आत्मकी चिन्ता तो नहीं करते हैं, किन्तु यह मेरा है और यह मेरे स्वामीका है, इस प्रकार मानते हुए एक दूसरेकी चिन्ता करते हैं।
अण्णं इमं सरीरादिगंपि जं होइ बाहिरं दव्वं । । णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ।। २३ ।।
अन्यदिदं शरीरादिकं अपि यत् भवति बाह्यं द्रव्यम् । ज्ञानं दर्शनमात्मा एवं चिन्तय अन्यत्त्वम् ॥ २३ ॥ अर्थ-शरीरादिक जो ये बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनसे जुदे हैं और मेरा आत्मा ज्ञानदर्शनस्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावनाका तुमको चिन्तवन करना चाहिये।