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गुर्वष्टक |
तारा देवी घटमें थापी, पटके ओट करत उच्चार | their स्यादवादवल मुनिवर, बौद्धवेधि तारामदटार । सो. ॥२॥ स्वामि संमभद्र मुनिवरसौं, शिवकोटी हठ कियौ अपार । वंदन करौ शंभुपिंडीकौ, तब गुरु रच्यौ स्वयंभू भार ॥ वंदन करत पिंडिका फाटी, प्रगट भये जिनचंद्र उदार । सो ०३ श्रीमत मानतुंग मुनिवरपर, भूप कोप जब कियौ गँवार । बंद कियौ तालेमें तबहीं, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार ॥ चक्रेश्वरी प्रगटतब हैकै, बंधन काट कियौ जयकार । सो. ॥४॥ श्रीमतवादिराज मुनिवरसों, कौ कुष्ट भूपति जिहँबार । श्रावक सेठ को तिहँ अवसर, मेरे गुरु कंचनतन धार ॥ तबहीं एकीभाव रच्यौ गुरु, तन सुवर्णदुति भयौ अपार । सो. ॥५॥ श्रीमत कुमुदचंद्र मुनिवरसों, वाद परौ जहँ सभामझार । तबहीं श्रीकल्यानधाम श्रुति, श्रीगुरू रचनारची अपार || तत्र प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथकी, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार । सो. ६ श्रीमत विद्यानंदि जब श्रीदेवागम श्रुति मुनी सुधार । अर्थहेत पहुंचौ जिनमंदिर, मिलौ अर्थ तह सुखदातार ॥ तब व्रत परम दिगम्बरको घर, परमतको कीनो परिहार | सो. ॥७॥ श्रीमत अभयचंद्र गुरुसों जब, दिल्लीपति इमि कही पुकार । कै तुम मोहि दिखावहु अतिशय, के पकरौ मेरो मत सार ॥ तब गुरु प्रगट अलौकिक अतिशय, तुरत हरौ ताको मदभार । सो गुरुदेव बसौ उर मेरे, विघ्न हरण मंगल करतार ॥ ८ ॥ दोहा । विधन हरण मंगलकरण, वांछित फलदातार । वृंदावन अष्टक रच्यौ, करौ कंठ सुखकार ॥ इति गुर्वष्टक |
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