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प्रकीर्णक ।
प्रकीर्णक।
माधवी छन्द। रविसे रविसेन अचारज हैं, भविवारिजके विकसावन हारे । जिन पद्मपुरान बखान कियौ, भवसागरते जग जन्तु उधारे ॥ सियराम कथा सु जथारज भाखि, मिथ्यात समूह समस्त विदारे । भवि वृन्द विथा अब क्यों न हरौ, गुरुदेव तुम्हीं मम प्रान अधारे ॥१॥ __ भगवजिनसेन कविंद नमौं, जिन आदि जिनिंदके छंद सुधारे । प्रथमानुसुवेद निवेदनमैं, जिनको परधान प्रमान उचारे ॥ जगमैं मुद मंगल भूरि भरे, दुख दूर करे भवसागर तारे । भवि वृन्द विथा अब क्यों न हरौ, गुरुदेव तुम्ही मम प्रान अधारे ॥२॥
अशोकपुष्पमंजरी छन्द । जासके मुखारविंदतें प्रकास भास वृन्द
स्यादवाद जैन वैन इंदु कुंदकुंदसे । तासके अभ्यासतै विकास भेद-ज्ञान होत,
मूढ़ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुंदकुंदसे ॥ देत हैं असीस सीस नाय इंद चंद जाहि,
मोह-मार-खंड मारतंड कुंदकुंदसे । सुद्ध बुद्धि वृद्धिदा प्रसिद्ध रिद्धि सिद्धिदा,
हुए न हैं न होहिंगे मुनिंद कुंदकुंदसे ॥३॥