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बनारसीविलासः
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ॐ यश्च व्याप्तं वहति वधधीधूम्यया क्रोधदावं
तं मानादि परिहर दुरारोहमौचित्यवृत्तेः ॥ ४९ ॥
___ (मात्रा ३१) सवैया। जातै निकस विपति सरिता सब; जगमें फैल रही चहुँ ओर । जाके ढिग गुणग्राम नाम नहिं, माया कुमतिगुफा अति घोर ॥ * जहँवधबुद्धि धूम रेखा सम; उदित कोप दावानल जोर । से मो अभिमान पहार पटंतर; तजत ताहि सर्वज्ञकिशोर ॥ ४९ ॥
शिखरिणी। शमालानं भञ्जन्विमलमतिनाडी विघटय. ___किरन्दुर्वाक्पांशून्करमगणयन्नागमसृणिम् ।
भ्रमन्नुन्या स्वैरं विनयवनवीथीं विदलयन् ___ जनः कं नानर्थ जनयति मदान्धो द्विप इव ॥५०॥
रोडक छन्द । भंजहिं उपशम थंभ; मुमति जंजीर विहंडहिं ।। कुवचन रज संग्रहहिं; विनयबनपंकति खंडहिं ।। जगमें फिरहिं म्वछन्द; वेद अंकुश नहिं मानहिं । गज ज्यों नर मदअन्ध; सहज सब अनरथ ठानहिं ॥५०॥
शार्दूलविक्रीडित । ॐ औचित्याचरणं विलुम्पति पयोवाहं नभस्वानिव
प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशां जीवितम् । कीति कैरविणीं मतङ्गज इव प्रोन्मूलयत्यञ्जसा
मानो नीच इवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ५१ , ཀོ***********, *, *,ོ* པོ ས ས ས ས ས སོ་༼ས
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