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दूसरोंके दुःख सुखमें अंश नहीं ले सकते । सहानुभूति इसीमें है कि हम आपेको भूल जाएं और दूसरोंका ध्यान रखें ।
दूसरों के साथ उनके दुःख सुखको अनुभव करनेके लिए यह अवश्य है कि पहले हम उनको अच्छी तरह जानें, अपने आपको कल्पनाशक्ति द्वारा उनकी अवस्थामें प्रवेश कर सकें, उनके साथ एक हो जाएं और उन्हींकी मानसिक दृष्टि से देखें । मनुष्य एक दूसरेके अभिप्रायको भले प्रकार नहीं समझते, इस लिए वे एक दूसरेको बुरा कहते हैं और उससे अलग रहना चाहते हैं ।
जीवन बराबर बढ़ता और उन्नति करता रहता है और पापी और धर्मात्मामें वस्तुतः कोई भेद नहीं है, केवल पदका अन्तर है। धर्मात्मा पहले किसी कालमें पापी था, और पापी किसी न किसी दिन धर्मात्मा बन जाएगा । पापी अभी बालक है; धर्मात्मा बड़ा मनुष्य है । जो मनुष्य पापियोंसे अलग होना चाहता है इस विचारसे कि वे दुष्ट हैं और उनसे अलग रहना अच्छा है, तो वह ऐसे मनुष्यके समान है जो छोटे बच्चोंसे मिलना नहीं चाहता, क्योंकि वे मूर्ख और उद्धत हैं और खिलौनोंसे खेलते रहते हैं।
जब मनुष्य विषयभोगकी इच्छासे रहित हो जाता है और खार्थ और अपनी आत्मश्लाघामय इच्छाओंको वशमें कर लेता है, तब वह सब प्रकारके पाप कष्ट और दुःखोंके मर्मको जानता है और नीतिसम्बन्धी भीतरी नियमको पूरा २ समझता है । अपने आपेको सर्वथा वशमें कर लेनेसे पूरा २ ज्ञान और पूरी २ सहानुभूति प्रकट होती है, और जो पुरुष इतर जनोंको शुद्ध हृदयसे देखता