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आत्माका विचार करता है, उसके नियमसे तप होता है। णिवेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवेचागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ७८॥
निर्वेगत्रिकं भावयेत् मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु ।
यः तस्य भवेत् त्यागः इति भणितं जिनवरेन्द्रः ।। ७८ ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवानने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्योंसे मोह छोड़कर संसार, देह, और भोगोंसे उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसके त्यागधर्म होता है। होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहिनु सुहदुहदं । णिदेण दु वट्टदि अणयारो तस्सकिंचण्हं ।।७९।।
भूत्वा च निम्सङ्गः निजभावं निग्रहीत्वा सुखदुःखदम् । निर्द्वन्द्वेन तु वर्तते अनगारः तम्याकिञ्चन्यम् ।। ७९ ॥ अर्थ--जो मुनि सब प्रकारके परिग्रहोंमे रहित होकर और सुख दुःखके देनेवाले कर्मजनित निजभावोंको रोककर निर्द्वन्द्वतासे अर्थात् निश्चिन्ततासे आचरण करता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है । भावार्थ-अन्तरंग
और बहिरंग परिग्रहके छोड़नेको आकिंचन्य कहते हैं। सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुव्भावम् । सो बम्हचेरभावं मुक्कदि खल्लु दुद्धरं धरदि ।।८।।
सर्वाङ्गं पश्यन स्त्रीणां तामु मुञ्चति दुर्भावम् ।।
स ब्रह्मचर्यभावं सुकृतीः खलु दुर्द्धरं धरति ।। ८० ॥ अर्थ-जो पुण्यात्मा स्त्रियोंके सारे सुन्दर अंगोंको