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________________ ३५ देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्यधर्मको धारण करता है। सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो। सो ण य वजदि मोक्खं धम्म इदि चिंतये णिचं८१ श्रावकधर्म त्यत्तवा यतिधर्मे यः हि वर्तते जीवः । स न च वर्जति मोक्षं धर्ममिति चिन्तयेत् नित्यम् ।।८१।। अर्थ-जो जीव श्रावकधर्मको छोड़कर मुनियोंके धमैका आचरण करता है, वह मोक्षको नहीं छोड़ता है। अर्थात् मोक्षको पा लेता है। इस प्रकार धर्मभावनाका सदा ही चिन्तवन करते रहना चाहिये । भावार्थ-यद्यपि परंपरामे श्रावकधर्म भी मोक्षका कारण है, परन्तु वास्तवमें मुनिधर्मसे ही साक्षात् मोक्ष होता है, इसलिये इसे ही धारण करनेका उपदेश दिया है । णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झत्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिचं ॥ ८२॥ निश्चयनयन जीवः मागारानागारधर्मतः भिन्नः । मध्यस्थभावनया शुद्धात्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ८२ ।। १ पहले कही हुई ६८ नम्बरकी गाथाका और इसका सम्बन्ध मिलानेसे ऐसा मालूम होता है, कि ६८ वी गाथाके पश्चात्की गाथा यही है, बीच में जो गाथाय है, वे प्रतिमा और दशधर्मोके प्रकरणको देखकर किसीने क्षेपकके तौरपर शामिल कर दी है । और प्रतिमाओंके तो केवल नाममात्र गिना दिये है, परन्तु धर्मोका स्वरूप पूरा कह दिया गया है; इससे भी ये गाथाय क्षेपक मालूम होती हैं। ग्रन्थका तो दशधोंके समान ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप भी जुदा २ कहते ।
SR No.010129
Book TitleJina pujadhikar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherNatharang Gandhi Mumbai
Publication Year1913
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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