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जैनग्रन्थरत्नाकरे
देवलोक ताको घर आँगन; राजरिद्ध सेर्वै तमु पाय ताको तन सौभाग्य आदि गुन; केलि विलास करै नित आय ॥ सोनर त्वरित तेरै भवसागर: निर्मल होय मोक्ष पद पाय । द्रव्य भाव बिधि सहित बनारसि; जो जिनवर पूजै मन लाय १० शिखरिणी ।
कदाचिन्नातङ्कः कुपित इव पश्यत्यभिमुखं विदूरे दारिद्र्यं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् । विरक्ता कान्तेव त्यजति कुगतिः सङ्गमुदयो
न मुञ्चत्यभ्यर्णे सुहृदिव जिनाच रचयतः ॥११॥ ज्यौं नर रहे रिसाय कोपकर; त्यौ चिन्ताभय विमुख बखान । ज्यौ कायर शंकै रिपु देखत त्यौ दरिद्र भाजै भय मान ॥ ज्यौ कुमार परिहरे खंडपति, त्यो दुर्गति छेडे पहिचान । हितु ज्यौं विभौ तजै नहिं संगत; सो सब जिनपूजाफल जान ११ शार्दूलविक्रीडित ।
यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽर्च्यते यस्तं वन्दत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते । यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते
यस्तं ध्यायति कुमकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः ॥ जो जिनेंद्र पूजे फूलनसों; सुरनैनन पूजा तिस होय । बंदें भावसहित जो जिनवर वंदनीक त्रिभुवन में सोय ॥
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