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सङ्घ हैं और दूसरी ओर महात्माओं धर्मात्माओं और बुद्धिमानोंकी सभाएं हैं; इससे सिद्ध है कि मनुष्य स्वभावसे ही अपनी २ संगतिमें मिलना चाहते हैं और अपने ही जैसोंसे अपना भेद प्रगट करना चाहते हैं और दुष्टों और सज्जनोंमें कितना धरती आकाशका अन्तर है ।
ऋषि मुनि लोगोंने उत्तम जीवनकी एक सुन्दर नगरसे उपमा दी है; पर दुष्ट जीवनकी किसी नगरसे उपमा नहीं दी जा सकती; दुष्ट जीवन नगर रहित है; इसमें संलग्नशील, शिष्ट और मधुर मूल पदार्थ नहीं हैं जिनसे सभ्य नगर के रहनेवालोंकी अवस्था उत्पन्न हो सके; यह जाति से बाहर है और सब - ने इसे छोड़ रखा है; इसका कोई स्थान नहीं जहां यह शरण ले सके और ठहर सके ।
धर्मात्मा और पवित्र मनुष्य ऋजुताके सुन्दर नगर में बसते हैं और वे दुष्ट और पापी लोगोंसे अलग हैं जो उस नगरकी भित्तियोंके बाहर फिरते रहते हैं । क्योंकि जहां पुण्य है। वहां पाप नहीं आ सकता; पर इस नगरके द्वार सदा खुले रहते हैं। द्वारपाल देखते रहते हैं और प्रत्येक पछतानेवाले पापीको प्रसन्नता से भीतर आने देते हैं; क्योंकि यद्यपि पाप तो भीतर नहीं आ सकता, पर पापी पुण्यवान् होकर भीतर प्रवेश कर सकता है ।
यद्यपि सज्जन पुरुष दुष्टोंसे नहीं मिलते, तथापि वे उनसे कम प्रेम नहीं रखते और उनको सुधारनेका यत्न करते रहते हैं; पर इन दोनोंमें अन्तर अवश्य रहेगा, क्योंकि स्वर्ग और नरक