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बनारसीविलासः
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जोई नर हो सुचेत चित्त समता समेत, धरमके हेतको सुखेत धन खरचै ॥ ७९ ॥
मन्दाक्रान्ता। तस्यासन्ना रतिग्नुचरी कीर्तिरुत्कण्ठिता श्रीः _ स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्तित्वऋद्धिः । पाणौ प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंपत् सप्तक्षत्र्यां वपति विपुलं वित्तवीजं निजं यः ॥ ८ ॥
पद्मावती। ताकी रति कीति दामी सम, सहसा राजरिद्धि घर आवै । सुमति सुता उपजे ताक घट, सो सुरलोक संपदा पावै ॥ नाकी दृष्टि लग्दै शिव मारग, सो निरबंध भावना भावै। जो नर त्याग कपट कुंवरा कह, विविसों सप्तखेत धन बावै ॥८०
तपप्रभावाधिकार ।
शार्दूलविक्रीडित । यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानल
ज्वालाजालजलं यदुग्रकरणग्रामाहिमन्त्राक्षरम् । यत्प्रत्यूहतमःसमूह दिवसं यल्लब्धिलक्ष्मीलता___ मूलं तद्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः ८१
पदपद। जो पूरब कृत कर्म, पिड गिरदलन वज्रधर । जो मनमथ दव ज्वाल, माल सँग हरन मेघझर ॥
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