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वह हाथ नहीं आता, तो फिर क्या वह विद्यमान है ? हां! एक संतोषी मनुष्य था जो यह कह सकता था कि मैंने प्रत्येक दशामें संतुष्ट रहना सीख लिया है । वह इस लिए संतुष्ट था कि वह जानता था कि सारी वस्तुएं मिलकर भलेके लिए काम करती रहती हैं, अर्थात् जो कुछ होता है सब भलेके लिए ही होता है। यही नीव है जिसपर 'संतोषरूपी मन्दिर' बनना चाहिये,अर्थात् एक दृढ विश्वास कि इस सकल ब्रह्माण्ड में प्रेम और प्रज्ञाका राज्य है और जो शक्ति सबपर शासन करती है वह एक श्रेष्ठ शक्ति है । जब मनकी यह भावना हो जाए, तब नीव पड़जाती है और जो लोग ऐसी नीवपर गृह बनाएंगे, उनके गृह वा प्रासाद शान्तिमय बनेंगे।
इससे यह न समझना कि जो मनुष्य संतुष्ट है, वह आगे उन्नति नहीं कर सकता और न उसमें किसी प्रकारकी मनोकामना और उच्चपदकी आकांक्षा रही । ऐसी अवस्थाका नाम तो स्थिरता वा निश्चलता है । संतोषके यहांपर इससे अधिक विस्तृत अर्थ लिए गए है । शुभ [ धर्म ] सत्य और सौन्दर्यकी कामना कभी नहीं घटनी चाहिये, उच्चपदको प्राप्त करनेका यत्न कभी नहीं छोड़ना चाहिये । जब एक मनुप्यने प्रत्येक दशामें संतुष्ट रहना सीख लिया है या यह कहो कि जब एक मनुप्य अपने आपको सारी घटनाओं के अनुसार बना सकता है, तो फिर मनको शान्त रखनेके लिए किसी विशेष घटनाकी आवश्यकता नहीं, फिर इस बातका भी भय नहीं रहा कि उन्नतिसे संतोष जाता रहेगा। ऐसी भीतरी रमणीय दशा वा अध्यात्मज्ञान प्राप्त करनेसे हमें उन्नतिकी ओर अधिक प्रेरणा होती है । यदि