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कविवर बाबू वृन्दावनजी कृत परमान नय निछेपसौं सब बस्तु बताया ।। इसलोकवारतीक विद्यानंदजी मंडा । गुरुदेवने जड़मूलसौं पाखंडको खंडा । जैवंत ॥११॥ गुरु पूज्यपादजी हुए मरजादके धोरी। सर्वार्थसिद्धि सूत्रकी टीका जिन्हों जोरी ।। जिसके लखेसौं फिर न रहै चित्तमें भरम । भविजीवको भाष है सुपरभावका मग्म ॥ जैवंत ॥१२॥ धरसेन गुरूजी हरौ भवि वृंदकी व्यथा । अग्रायणीय पूर्वमें कुछ ज्ञान जिन्हें था । तिनके हुए दो शिष्य पुष्पदंत भुजबली । धवलादिकांका मूत्र किया जिस्से मग चली जै०१३ गुरु औरने उस मूत्रका सब अर्थ लहा है। तिन धवल महाधवल जयसुधवल कहा है। गुरु नेमिचंद्रजी हुए धवलादिके पाठी। मिडांतके चक्रीशकी पदवी जिन्हों गांठी।जै०।१४। तिन तीनही मिद्धांतके अनुसारसौं प्यारे । गोमट्टसार आदि सुसिद्धांत उचारे ॥ यह पहिले मुसिद्धांतका विरतंत कहा है। अब और सुनो भावसौं जो भेद महा है।जै० ॥१५॥ गुणधर मुनीशने पढ़ा था तीजा प्राभृत । ज्ञानप्रवाद पूर्वमें जो भेद है आश्रित । गुरु हस्तिनागजीने सोई जिनसौं लहा है। फिर तिनसौं यतीनायकने मूल गहा है ।। जै० ॥१६॥ तिन चूर्णिका स्वरूप तिस्से सूत्र बनाया।