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जैनग्रन्थरत्नाकरे ।
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विष्वग्वर्षमिवोपरक्षितितले दानार्हद तपः___ स्वाध्यायाध्ययनादि निष्फलमनुष्ठानं विना भावनाम्।।
पद्मावती छन्द। ज्यों नीराग पुरुषके सनमुख; पुरकामिनि कटाक्ष कर ऊठी। ज्यों धन त्यागरहित प्रभुसेवन; ऊसरमें बरषा जिम छूटी ॥ ज्यों शिलमाहि कमलको बोवन; पवन पकर जिम बांधिये मूटी। ये करतूति होय जिम निष्फल; त्यों विनभावक्रिया सब झूठी ८५ सर्व शीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्यघं भित्सति ___ क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति । कल्याणोपचयं चिकीर्षति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सते मुक्तिस्त्रीं परिरिप्सते यदि जनस्नद्भावयेद्भावनाम् ८६
घनाक्षरी। पूरब करम दहै; सरवज्ञ पद लहै;
गहै पुण्यपंथ फिर पापमैं न आवना । करुनाकी कला जागै कठिन कपाय भागै; __ लागै दानशील तप मफल सुहावना ॥ पावै भवसिंधु तट ग्योलै मोक्षद्वार पट; ___ शर्म साध धर्मकी धराम कर धावना । एते सब काज करै अलखको अंगधरै;
चेरी चिदानंदकी अकेली एक भावना ॥ ८६ ॥
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