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बनारसीविलासः
मत्तगयन्द।
जो वर कानन दाहनकों दव; पावकसों नहि दूसरो दीसै । जो दवआग बुझै न ततक्षण; जो न अखंडित मेघ बरीसै ॥ जो प्रघटै नहि जौलग मारुत; तौलग घोर घटा नहिं खीसै ॥ त्यों घटमें तपवज्रविना दृढ; कर्मकुलाचल और न पीसै ॥८३॥
स्रग्धरा।
संतोपस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धबन्धप्रपञ्चः __ पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरदभयदलः शीलसंपत्प्रवालः श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलकुलवलैश्वर्यसौन्दर्यभोगः स्वर्गादिप्राप्तिपुप्पः शिवपदफलदः स्यात्तपःकल्पवृक्षः ॥
पदपद। सुदृढ मूल संतोष; प्रथम गुन प्रबल पेड ध्रुव । पंचाचार सु शाख; शील संपति प्रवाल हुव ॥ अभय अंग दलपुंज; देवपद पहुप मुमंडित ।
सुकृतभाव विस्तार; भार शिव सुफल अखंडित ॥ * परतीत धार जल सिंच किय; अति उतंग दिन दिन पुषित । ३ जयवंत जगत यह सुतपतरु; मुनि विहंग सहि सुखित ॥ ८४ ॥
भावनाधिकार।
शार्दूलविक्रीडित । नीरागे तरुणीकटाक्षितमिव त्यागव्यपेतप्रभोः
सेवाकष्टमिवोपरोपणमिवाम्भोजन्मनामश्मनि ।
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१. तपः पादपोऽयमित्यपि पाठः. २. त्यागव्ययेन प्रभोः इत्यपि पाठः.