________________
( ६४ )
लिया; पर अभी कठिनतासे उनको आगे बढ़नेका अवसर मिला होगा कि मृत्युकी हाय २ उनके कानमें आई और रोने चिछानेका शब्द सुनाई दिया- "महाराज ! तनिक ठहर जाओ ! हे धर्मात्मा ! आपके शरीरके हर्षदायक पवनके झोकोंसे हमको सुख मिला है । हम महाकष्ट में पड़े हैं । हमारे दुःखोंका यहां कोई अन्त नहीं है । हम महादुःखी हैं। हाय ! हमने संसारमें जो बुराइयां की थीं, उनका कैसा बुरा दण्ड मिल रहा है । आपके आनेसे तनिक सुख मिला है और कुछ चैन आया है, क्योंकि आप धर्मात्मा हो । आपके शरीरकी भांपसे हमको ठंडक पहुंच रही है । महाराज ! दया करो, कुछ कालके लिए ठहर जाओ, आपके कारण हम दीनोंको शान्ति प्राप्त हुई है" ।
धर्मात्मा और दयालु युधिष्ठिर खड़ा हो गया और प्रेम और दयाके भावसे पूछने लगा, - " हे दुःखसे सताए हुए लोगो ! तुम कौन हो" ? भिन्न २ प्रकारके शोक भरे शब्द कानमें सुनाई दिए, “महाराज ! मैं कर्ण हूं, मैं भीम हूं, मैं अर्जुन हूं, मैं नकुल हूं, मैं सहदेव हूं, मैं द्रौपदी हूं, हम द्रौपदीके पुत्र हैं" ।
“हे परमात्मन् ! इन निरपराधियोंने क्या अपराध किया था ? स्वर्गमें भी यह अन्धेर कि दुष्ट दुर्योधन तो सुख भोगे और ये साधु जन इस प्रकार दुःख उठाएं" । शोक क्रोध और आश्चर्यने एक २ करके राजाके हृदयपर आक्रमण किया । युधिष्ठिरने तेवर बदलकर दूतसे कहा, “ अभी उन देवताओंके पास लौट जा, जिनका तू दूत है और उनसे स्पष्ट कह दे कि मेरे भाइयोंको मेरे यहां रहनेसे सुख मिलता है, ही रहूंगा । पुझे अपने सुखकी
इस लिए मैं यहां । ये दुःखसे
चिन्ता नहीं है