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बनारसीविलासः
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सो हियशून्य कवित्त करै समता विन सो तपसों तन दाहै । सो थिरता विन ध्यान धेरै शट; जो सत संग तजे हित चाहे६५
हरिणी। हति कुमति भिन्ते मोहं करोति विवेकितां
वितरति रतिं सूत नीति तनोति विनीतताम् । प्रथयति यशो धत्ते धर्म व्यपोहति दुर्गतिं जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोत्तमसंगमः ॥६६॥
घनाक्षरी। कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय;
जगमगै सुयश विवेक जगै हियेसों । नीतको दिढाव होय विनैको बढाव होय; ___ उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों । धर्मको प्रकाश होय दुर्गतिको नाश होय; ___ वरंत समाधि ज्यों पियूष रस पियेसों । तोप परि पर होय; दोप दृष्टि दूर होय, एत गुन होहि सत; संगतके कियेसों ।। ६६ ॥
शार्दूलविक्रीडित ।। लब्धुं बुद्धिकलापमापदमपाकर्तुं विहाँ पथि
प्राप्तुं कीर्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्म समासेवितुम् । रोद्धं पापविपाकमाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियं * चेत्त्वं चित्त समीहसे गुणवतां सङ्गं तदङ्गीकुरु ॥६॥ ༼*༼******** *****“
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