________________
४०
भूधरदासजीकृत बारह भावना ।
दोहा । राजा राणा छत्रपति, हाथिनके असवार । मरना सबको एकदिन, अपनी अपनी पार ॥१॥ दलबल देई देवता, मातपिता परिवार। मरती बिरियां जीवको, कोई न राखनहार ॥२॥ दामविना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसारमें, सब जग देख्यौ छान ॥३॥ आप अकेला अवतरै, मग अकेला होय।। यो कबह या जीवकों, साथी सगा न कोय ॥४॥ जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपना कोय । घर संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ ५॥ दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नहीं घिनगेह ॥ ६॥
सोरठा। मोहनींदके जोर, जगवासी घृमै सदा । कर्म चोर चहुंओर, सरवस टूट मुधि नहीं ॥ ७॥ सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जय उपशमै । तब कछु बनै उपाय, कर्मचोर आवत रुके ॥ ८॥
दोहा । ज्ञान दीप तप तेलभर, घर शोधे भ्रम छोर । या विधि विन निकसैं नहीं, पैठे पूरव चोर ॥२॥ पंचमहावत संचरन, समिति पंचपरकार । प्रवल पंच इन्द्रियविजय, धार निर्जरा सार ॥१०॥ चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुषसंटान । तामें जीव अनादिन, भरमत हैं विन शान ॥ ११ ॥ जाँचे सुरतरु देय सुख, चिंतन चिंतारैन । विन जाँचे विन चिंतये, धर्म सकल सुखदैन ॥ १२ ॥ धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुलेभ है संसारमे, एक जथारथ ज्ञान ॥ १३ ॥