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चार ( अ० ५ ) में निम्नलिखित श्लोकों द्वारा उनके स्वरूप कथनसे प्रगट है:
" सम्यग्दृष्टिः सातिचारमूलाणुप्रतिपालकः । अर्चादिनिरतस्त्वग्रपदं कांक्षी हि पाक्षिकः ॥ ४ ॥" "पाक्षिकाचारसम्पत्या निर्मलीकृतदर्शनः । विरक्तो भवभोगाभ्यामर्हदादिपदाचकः ॥ १४ ॥ मलान्मूलगुणानां निर्मूलयन्नग्रिमोत्सुकः । न्यायां वार्त्ती वपुः स्थित्यै दधद्दर्शनिको मतः ।। १५ ।।
ऊपरके श्लोकोंमें, “अर्चादिनिरतः ” ( पूजनादिमें तत्पर ) इस पदसे, पाक्षिकश्रावकके लिये पूजन करना जरूरी रक्खा है । और "अर्हदादिपदाऽकः " (अर्हन्तादिकके चरणोंका पूजनेवाला) इस पदसे, दर्शनिक श्रावक के लिये पूजन करना आवश्यक कर्म बतलाया है । सागारधर्मामृतके दूसरे अध्याय में, जिसका अन्तिम काव्य, "सैषः प्राथमकल्पिकः..." इत्यादि है, पाक्षिक श्रावकका सदाचारवर्णन किया है । उसमें भी, "यजेत देवं सेवेत गुरून्...” इत्यादि श्लोकों द्वारा, पाक्षिकश्रावकके लिये नित्यपूजन करनेका विधान किया है । भगवज्जिन्न सेनाचार्य भी आदिपुराण मे निम्न लिखित श्लोक द्वारा सूचित करते है कि, पूजन करना प्राथमकल्पिकी ( पाक्षिकी) वृत्ति अर्थात् पाक्षिकश्रावकका कर्म वा श्रावक मात्रका प्रथम कर्म है । यथा:
" एवं विधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम् ||"
प. ३८-३४
यह तो हुई पाक्षिकश्रावककी बात, अब अविरतसम्यग्दृष्टिको लीजिये अर्थात् - ऐसे सम्यग्दृष्टिको लीजिये, जिसके किसी प्रकारका कोई व्रत होना तो दूर रहा, व्रत वा संयमका आवरण भी अभीतक जिसने प्रारंभ नहीं किया | जैनशास्त्रों में ऐसे अवतीको भी पूजनका अधिकारी