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हास
वासारित प्रामा
देवासुरमन लड्दै लोकपछि अथ अनित्यभावना |
भू. -हू
'वरभवणजाणवाहणसयणासण देवमणुवरायाणं । मादुपिदुसजणभिचसंबंधिणो य पिडिविया -
णिच्चा ॥ ३ ॥
दीलिपु
हवालद
वरभवनयानवाहनशयनाऽऽमनं देवमनुजराज्ञाम् । मातृपितृम्वजनभृत्यसम्बन्धिनश्च पितृव्योऽनित्याः ॥ ३ ॥
अर्थ - देवताओंके मनुष्योंके और राजाओंके सुन्दर महल, यान, वाहन, सेज, आसन, माता, पिता, कुटुम्बीजन, सेवक, सम्बन्धी ( रिश्तेदार ) और काका आदि सब अनित्य हैं अर्थात् ये कोई सदा रहनेवाले नहीं हैं । भ्रू अवधि बीतनेपर सब अलग हो जायेंगे।| सामरिंग दियरूवं आरोग्गं जोवणं वलं तेजें । सोहग्गं लावणं सुरवणुमिव सस्मयं ण हवे ||४|| समझेन्द्रियरूपं आरोग्यं यौवनं बलं तेजः ।
विप्रं
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आप
सौभाग्यं लावण्यं सुरधनुरिव शाधनं न भवेत् ॥ अर्थ - जिस तरह आकाशमं प्रगट होनेवाला इन्द्रधनुष थोड़ी ही देर दिखलाई देकर फिर नहीं रहता है, उसी प्रकारसे पांचों इन्द्रियोंका स्वरूप, आरोग्य ( निरोगता ) जोवन, बल, तेज, सौभाग्य, और मौन्दर्य ( सुन्दरता ) सदा शाश्वत नहीं रहता है । अर्थात् ये सब बातें निरन्तर एकसी नहीं रहती हैं- क्षणभंगुर हैं । जलबुब्बुदसकवणूखणरुचिघणसोहमिव थिरं ण