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बनारसीविलासः
( ३१ मात्रा ) सवैया । सो अपयशको डंक बजावत; लावत कुल कलंक परधान । सो चारितको देत जलांजुलि गुन बनको दावानल दान || सो शिवपन्थकिवार बनावत; आपति बिपति मिलनको थान । चिन्तामणि समान जग जो नर; शील रतन निजकरत मलान ३७ मालिनी ।
हरति कुलकलङ्कं लुम्पते पापप सुकृतमुपचिनोति श्लाघ्यनामातनोति । नमयति सुरवर्ग हन्ति दुर्गापसर्ग
रचयति शुचि शीलं स्वर्गमोक्षौ सलीलम् ॥ ३८ ॥ रोडक छन्द |
कुल कलंक दलमलहि; पापमपंक पखारहि । दान संकट हरहि; जगत महिमा विस्तारहि ॥ सुरंग मुकति पद रहि; सुकृतसंचहि करुणारसि ।
सुरगन बंदहि चरन; शीलगुण कहत वनारसि ॥ ३८ ॥ शार्दूलविक्रीडित |
व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदस्तेषां व्रजन्ति क्षयं
कल्याणानि समुल्लसन्ति विबुधाः सांनिध्यमध्यासते । कीर्तिः स्फूर्तिमियति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघं स्वर्निर्वाणसुखानि संनिदधते ये शीलमाविभ्रते ||३९||
मत्तगयन्द |
ताहि न वाघ भुजंगमको भय; पानि न वोरै न पावक जालै । ताके समीप रहैं सुर किन्नर; सो शुभ रीत करै अघ टा
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