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प्रारम्भहीसे सब कुछ होता है । प्रारम्भ कारण है और कार - णसे कार्य्यसन्तति उत्पन्न होती है और कार्यमें सदा कारणके गुण होते हैं । प्रारम्भिक वा आदिकी प्रेरणासे उसके फल निश्चित होते हैं प्रत्येक प्रारम्भका अन्त वा उद्देश्य भी होना चाहिये । जैसे कि द्वारसे किसी मार्गको जाते हैं और मार्गसे किसी विशेष स्थानपर पहुंचते हैं इसी प्रकार उद्योग वा प्रारम्भ करनेसे फल प्राप्त होते हैं और फलोंसे कार्य समाप्ति होती है ।
इसी कारण शुद्ध रीतिपर प्रारम्भ करनेसे शुद्ध कार्य और अशुद्ध रीतिपर प्रारम्भ करनेसे अशुद्ध कार्य उत्पन्न होते हैं । तुम्हें चाहिये कि अत्यन्त सोच विचारपूर्वक काम करके अशुद्ध प्रारम्भोंसे बचो और शुद्ध प्रारम्भोंसे काम लो और इस प्रकार बुरे फलोंसे बचो और उत्तम फल भोगो ।
कुछ प्रारम्भ ऐसे भी हैं जो हमारे वशमें नहीं है । ये प्रारम्भ हमसे बाहर हैं, चराचर जगत् में है, हमारे चारोंओर इस खाभाविक संसार में है, और इतर जनोंमें हैं जो हमारी नाई स्वतन्त्र और स्वाधीन हैं ।
इस प्रकार के प्रारम्भोंसे तुम्हारा कुछ प्रयोजन नहीं, वरश्च तुम्हें अपनी शक्ति और ध्यान उन प्रारम्भोंकी ओर लगाना चाहिये जिनपर तुम्हारा पूरा २ वश है और जिनसे तुम्हारे जीवन में तुम्हें
अनेक प्रकारके फल उत्पन्न होते हैं । ये प्रारम्भ तुम्हारे ही विचार और कर्मों में पाए जाते हैं, अनेक घटनाओं में तुम्हारी ही मनोवृ तियां उपस्थित हैं, तुम्हारे नित्यके व्यवहार में दीख पड़ती हैं अर्थात् तुम्हारे जीवनमें विद्यमान हैं और तुम्हारा जीवन ही तुम्हारे काके अनुसार तुम्हारा उत्तम वा अधम संसार है |