________________
यति श्रीनयनसुखजी विरचित। ३ भए जिन एकादश अंग पार लयौ है। जयपाल महांतप पांडुदेव ध्रुवसेन, तथा कंसदेव नाम आचारज भयो है। जाके उपगारकी सुगंधते जगत सब, देखौ भविजीव अजौं महकाय रह्यौ है ॥ ११॥ फेर कंसरिके पिछार एकसौ अठार, वरसमँझार पांच गुरु जस लियौ है । निग्रंथ भए जैन पंथ पग दए एक, आचारांग अंगको उद्योत जिन कियौ है । गुरुने सुभद्र यशोभद्र भद्रबाहु तथा, महायश लोहसरि नामधेय दियौ है। पीछे भर्तभूमिमाहिं अंग ज्ञान रह्यौ नाहिं, नैनसुख तिनके पदाज प्रनमीयौ है । ॥ १२ ॥ सुनो भाई भव्य महावीरजीको मोक्ष गए, छस्सै पांच वरस वितीतेकी कहानी है। उज्जैन नरेश वीरविक्रमको शाको चल्यौ, अजौं वृद्धिरूप यह पुन्यकी निशानी है ॥ विक्रमको संवत अठत्तर वरतमान, तामैं अंगज्ञान गयो संतन बखानी है। पांचों अंक जोड़ लेहु छस्सैपै तिरासी देहु, लोहरि गुरुनै सन्यास विधि ठानी है ॥ १३ ॥
जिनवाणीकी परम्परा।
मनहरण । नीसरी अनंततीर्थराज हिमवंतन , गणधर मुखकुंडपरि
१ दूसरा नाम नक्षत्राचार्य है । २ भग्तक्षेत्रमे। ३ निर्वाणके ६०५ वर्ष पीछे उज्जैन नरेश विक्रमादित्य नही, किन्तु शक विक्रम अर्थात् शालिवाहन है, जिसका शक संवत् चलता है । कविवरका यह भ्रम है, जो संवत्कर्ता विक्रमको ६०५ वर्प पीछ लिखते है । ४ पहले कहे हुए ६२, १००, १८३, २२० और ११० वर्षको जोड़ दो-६८३ वर्ष । ५ अनन्ततीर्थकररूपीहिमालयोसे निकली।