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इस प्रकार षट्खंड आगमकी उत्पत्तिका वर्णन करके अब कषायमाभृत सूत्रोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं ।
( बहुत करके श्रीधरसेनाचार्य के समय में ) एक श्रीगुणधर नामके आचार्य हुए । उन्हें पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्वके दशमवस्तुके तृतीय कषायप्राभृतका ज्ञान था । श्रीगुणधर और श्रीधरसेनाचार्य की पूर्वापर गुरु परंपराका क्रम हमको ज्ञात नहीं है. क्योंकि उनकी परिपाठी के बतलानेवाले ग्रन्थों और मुनिजनों का अभाव है । इसलिये इस विषय में कुछ नहीं कहा जासकता । अस्तु श्रीगुणधर मुनिने भी वर्तमान पुरुषोंकी शक्तिका विचार करके कषायप्राभृत आगमको जिसे कि दोषप्राभृत भी कहते हैं. एकसौ तिरासी १८३ मूल गाथा और ५३ तिरेपन विवरणरूप गाथाओं में बनाया । फिर १५ महाअधिकारों में विभाजित करके श्रीनागहस्ति और आर्यमक्षु मुनियोंके लिये उसका व्याख्यान किया । पश्चात् उक्त दोनों मुनियों के समीप शास्त्रनिपुण श्रीयतिवृषभ नामक सुनिने दोषप्राभृतके उक्त सूत्रोंका अध्ययन करके पीछे उनकी सूत्ररूप चूर्णिवृत्ति छह हजार लोक प्रमाण बनाई । अनन्तर उन सूत्रोंका भलीभांति अध्ययन करके श्रीउच्चारणाचार्यने १२००० लोक प्रमाण उच्चारणवृत्ति नामकी टीका बनाई। इसप्रकार से गुणधर, यति - वृषभ और उच्चारणाचार्यने कषायप्राभृतका गाथा - चूर्णि और उच्चारणवृत्ति में उपसंहार किया ।
इसप्रकार से उक्त दोनों कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत सिद्धा
१ यथा मूल पुस्तके - गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५० ॥