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अर्थ-नरक अधो लोकमें हैं, असंख्यात द्वीप तथा समुद्र मध्यलोकमें हैं, और त्रेसठ प्रकारके स्वर्ग तथा मोक्ष ऊर्ध्वलोकमें हैं। इंगितीस सत्त चत्तारि दोण्णि एकेक छक्क चदुकप्पे। ति त्तिय एकेकेंदियणामा उडुआदितेसही॥४१॥
एकत्रिंशत् सप्त चत्वारि द्वौ एकैकं षट्रं चतुःकल्पे । त्रित्रिकमेकैकेन्द्रकनामानि ऋत्वादित्रिषष्टिः ॥ ४१ ॥ अर्थ-स्वर्गलोकमें ऋतु, चंद्र, विमल, वल्गु, वीर आदि ६३ विमान इन्द्रक संज्ञाके धारण करनेवाले हैं। उनका क्रम इस प्रकार है,-सौधर्म इशान स्वर्गके ३१, सानत्कुमार माहेन्द्रके ७, ब्रह्म ब्रह्मोत्तरके ४, लांतव कापिष्टके २, शुक्रमहाशुक्रका १, शतार सहस्रारका १, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चारकल्पोंके ६, अधोमध्य और ऊर्ध्व गैवेयिकके तीन तीनके हिसाबमे ९, अनुदिशका १, और अनुत्तरका १ सब मिलकर ६३॥ असुहेण णिश्यतिरियं सुहवजोगेण दिविजणरसोक्खं । सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिजो ॥ ४२ ॥
अशुभेन निरयतियञ्चं शुभोपयोगेन दिविज-नरसौख्यम् । ।
शुद्धेन लभते सिद्धिं एवं लोकः विचिन्तनीयः ॥ ४२ ॥ १ त्रैलोक्यमारकी ४६३ वी गाथा भी यही है। इससे यहां क्षेपक जान
पड़ता है।