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अर्थ-जो परममुनि इच्छाओंको रोककर और वैराग्यरूप विचारोंसे युक्त होकर आचरण करता है, उसके शौचधर्म होता है । भावार्थ-लोभकपायका त्याग करके उदासीनरूप परिणाम रखनेको शौचधर्म कहते हैं। वेदसमिदिपालणाए दंडच्चारण इंदियजएण । परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ७६
व्रतसमितिपालनेन दण्डत्यागेन इन्द्रियजयेन । । परिणममानस्य पुनः संयमधर्मः भवेत् नियमात् ।। ७६ ॥ अर्थ-व्रतों और ममितियोंके पालनरूप, दंडत्याग अर्थात् मन वचन कायकी प्रवृत्तिके रोकनेरूप, और पांचों इन्द्रियोंके जीतनेरूप परिणाम जिस जीवके होते हैं, उनके मंयमधर्म नियमसे होता है । सामान्यरूपसे पांचों इन्द्रियों और मनके रोकनेसे संयमधर्म होता है । व्रत समिति गुप्ति इसीके भेद हैं। विसयकसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसिज्झीए। जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ७७
विषयकषायविनिग्रहभावं कृत्वा ध्यानसिद्धयै । __ यः भावयति आत्मानं तस्य तपः भवति नियमेन ॥ ७७ ।।
अर्थ-पांचों इन्द्रियोंके विषयोंको तथा चारों कषायोंको रोककर शुभ ध्यानकी प्राप्तिके लिये जो अपनी १ इसी आशयकी गाथा गोमट्टमारके जीवकांटमें भी कही है;
वदसमिदिकसायाणं दंडाण तहिदियाण पंचण्हं । धारण पालण णिग्गह चाग जओ संजमो भणिओ॥४६५॥