Book Title: Jina pujadhikar Mimansa
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Natharang Gandhi Mumbai

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Page 394
________________ ३२ समणो | अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि यिमेण ॥ ७३ ॥ मुक्त्वा कुटिलभावं निर्मलहृदयेन चरति यः समनाः । आर्जवधर्मः : तृतीयः तस्य तु संभवति नियमेन || ७३ || अर्थ - जो मनस्वी ( शुभविचारवाला) प्राणी कुटिलभाव वा मायाचारी परिणामोंको छोड़कर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है । भावार्थ छल कपटको छोड़कर मन वचन कायकी सरल प्रवृतिको आर्जव धर्म कहते हैं । परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुझ्यो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ७४ परसंतापककारणवचनं मुक्त्वा खपरहितवचनम् । यः वदति भिक्षुः तुरीयः तम्य तु धर्मः भवेत् सत्यम् ॥७४॥ अर्थ - जो मुनि दूसरेको क्लेश पहुंचानेवाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरेके हित करनेवाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्यधर्म होता है । जिस वचनके कहनेसे अपना और पराया हित होता है, तथा दूसरेको कष्ट नहीं पहुंचता है, उसे सत्य धर्म कहते हैं । कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो | जो वट्टदि परममुणी तस्स दुधम्मो हवे सौचं ७५ कांक्षाभावनिवृतिं कृत्वा वैराग्यभावनायुक्तः । यः वर्तते परममुनिः तस्य तु धर्मः भवेत् शौचम् ॥ ७५ ॥

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