Book Title: Jina pujadhikar Mimansa
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Natharang Gandhi Mumbai

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Page 379
________________ १७ संसारमदिकंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो । संसारदुहतो जीवो सो हेयमिदि विचिंतिज्जो ॥३८ संसारमतिक्रान्तः जीव उपादेयमिति विचिन्तनीयम् । संसारदुःखाक्रान्तः जीवः स हेयमिति विचिन्तनीयम् ॥ ३८ ॥ अर्थ- जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिये और जो संसाररूपी दुःखोंसे घिरा हुआ है, वह tय अर्थात् ध्यानयोग्य नहीं है, ऐसा चिन्तवन करना चाहिये । भावार्थ-परमात्मा ही ध्यान करनेके योग्य है, वहिरात्मा नहीं है । अथ लोकभावना | जीवादिपयाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो । तिविहो हवेइ लोगो अहमज्झिमउडुभेयेण ॥ ३९ ॥ जीवादिपदार्थानां समवायः स निरुच्यते लोकः । त्रिविधः भवेत् लोकः अधोमध्य मोर्ध्वभेदेन ॥ ३९ ॥ अर्थ -- जीवादि छह पदार्थोंका जो समूह है, उसे लोक कहते हैं और वह अधोलोक, मध्य लोक, और ऊर्ध्वलोकके भेदोंस तीन प्रकारका है । णिरया हवंति ट्ठा मज्झे दीबंबुरासयोसंखा | सग्गो तिसहि भेओ तो उड़ हवे मोक्खो ||४०| निरया भवंति अधस्तनाः मध्ये द्वीपाम्बुराशयः असंख्याः । स्वर्गः त्रिषष्ठिभेदः एतस्मात् ऊर्ध्वं भवेत् मोक्षः || ४० ॥

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