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कर्मास्रवेण जीवः बुडति संसारसागरे घोरे ।
या ज्ञानवशा क्रिया मोक्षनिमित्तं परम्परया ॥ ५७ ॥ - अर्थ-जीव इस संसाररूपी महासमुद्रमें अज्ञानके वश कर्मोंका आस्रव करके डूबता है। क्योंकि जो किया ज्ञानपूर्वक होती है, वही परम्परासे मोक्षका कारण होती है । ( अज्ञानवश की हुई क्रिया नहीं )। आसवहेदू जीवो जम्मसमुद्दे णिमजदे खिप्पं । आसवकिरिया तम्हामोक्वणिमित्तंण चिंतेजो५८
आस्रबहेतोः जीवः जन्मममुद्रे निमजति क्षिप्रम् ।
आम्रवक्रिया तम्मान मोक्षनिमित्तं न चिन्तनीया ॥ ५८ ॥ अर्थ-जीव आस्रवके कारण संसारसमुद्र में शीघ्र ही गोते खाता है । इसलिये जिन क्रियाओंसे कर्मोंका आगमन होता है, वे मोक्षको ले जानेवाली नहीं हैं । ऐसा चिन्तवन करना चाहिये। पारंपजाएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि शिंदं आसवो जाण ५९।।
पारम्पर्येण तु आस्रवक्रियया नास्ति निवाणम् । संसारगमनकारणमिति निन्धं आस्रवो जानीहि ॥ ५९॥ अर्थ-कर्मीका आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्वाण नहीं हो सकता है । इसलिये संसारमें भटकानेवाले आस्रवको बुरा समझना चाहिये। पुवुत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स । उहयासवणिम्मुकं अप्पाणं चिंतए णिचं ॥ ६०॥