Book Title: Jina pujadhikar Mimansa
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Natharang Gandhi Mumbai

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Page 388
________________ २६ पूर्वोक्तास्रवभेदः निश्चयनयेन नास्ति जीवस्य । उभयास्रवनिर्मुक्तं आत्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ६० ॥ अर्थ- पहले जो मिथ्यात्व अव्रत आदि आस्रवके भेद कह आये हैं, वे निश्चयनयसे जीवके नहीं होते हैं। इसलिये निरन्तर ही आत्माको द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवोंसे रहित चिंतवन करना चाहिये । अथ संवरभावना । चलमलिणमगाढं च वज्जिय सम्मत्तदिकवाडेण । मिच्छत्तासवदारणिरोहो होदिति जिणेहिं णिद्दिहं चलमलिनमगाढं च वर्जयित्वा सम्यक्त्वदृकपाटेन । मिथ्यात्वास्रवद्वारनिरोधः भवति इति जिन निर्दिष्टम् ॥ ६१ ॥ अर्थ -- जो चल, मंलिन और अगाढ़ इन तीन दोषों मे रहित है ऐसे सम्यक्त्वरूपी सघन किवाड़ोंसे मिथ्यात्वरूप आवका द्वार बन्द होता है, ऐसा जिनभगवानने कहा है । भावार्थ - आत्माके सम्यक्त्वरूप परिणामोंसे मिथ्यात्वका आस्रव रुककर मिथ्यात्व -संवर होता है । १ आत्माकी रागादि भावरूप प्रवृत्तिको भावाव कहते है । और उस प्रवृत्ति से कार्माण वर्गणाम् पुलस्कंचोके आगमनको द्रव्यास्त्र कहते हैं । २ देव गुरु शास्त्रों अपनी बुद्धि रखनेको चल दोष कहते है, जैसे यह देव मेरा है, यह मन्दिर मेरा है, यह दूसरेका देव है, यह दूसरेका मन्दिर है । इसप्रकारके परिणामोसे सम्यग्दर्शनमें चल दोष आता है । ३ सम्यक्यरूप परिणामोंमे सम्यनवरूप मोहकी प्रकृतिके उदयसे जो मलीनता होती है, उसे मल दोष कहते है । यह सोनेमें कुछ एक मैलेपन के समान होता है । ४ श्रद्धानमें शिथिलता होनेको अगाढ़ कहते हैं । जैसे सब तीर्थंकरोंके अनंतशक्ति के धारक होनेपर भी शान्तिनाथको शान्तिके करनेवाले और पार्श्वनाथको रक्षा करनेवाले मानना ।

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