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और शुक्लध्यान होते हैं । इसलिये संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिये । भावार्थउत्तम क्षमादिरूप दश धर्मोके चिन्तवन करनेको धर्मध्यान कहते हैं और बाह्य परद्रव्योंके मिलापसे रहित केवल शुद्धात्माके ध्यानको शुक्लध्यान कहते हैं । इन दोनों ध्यानोंसे ही संवर होता है । जीवस्स ण संवरणं परमट्टणएण सुद्धभावादो । संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिचं ॥ ६५ ॥
जीवस्य न संवरणं परमार्थनयेन शुद्धभावात् । संवरभावविमुक्तं आत्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ६५ ॥ अर्थ - परन्तु शुद्ध निश्चयनयमे ( वास्तवमें) जीवके संवर ही नहीं है । इसलिये संवरके विकल्पसे रहित आरमाका निरन्तर शुद्धभावसे चिन्तवन करना चाहिये । भावार्थ - आस्रव संवर आदि अवस्थायें कर्मके मस्त्रन्धसे होती हैं, परन्तु वास्तव में आत्मा कर्मजंजालसे रहित शुद्धस्वरूप है ।
अथ निर्जराभावना | बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि हि जि (णवरोप) तम् । जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे || ६६ || बन्धप्रदेशगलनं निर्जरणं इति हि जिनवरोपात्तम् ।
येन भवेत्संवरणं तेन तु निर्जरणमिति जानीहि ॥ ६६ ॥ अर्थ - कर्मबन्धके पुद्गलवर्गणारूप प्रदेशोंका जिनका कि आत्माके साथ सम्बन्ध हो जाता है, झड़ जाना ही