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पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, और वायुकायकी सात सात लाख (४२ लाख), वनस्पतिकायकी दश लाख, विकलेन्द्रियकी(द्वीन्द्रिय तेइन्द्री, चौइन्द्रीकी) छह लाख, देव, नारकी और तिर्यचोंकी चार चार लाख, और मनुष्योंकी चौदह लाख, इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख योनियां होती हैं। नगला. संजोगविप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्खं च ।
संसारे भूदाण होदि हु माणं तहावमाणं च ॥३६॥ 17 संयोगविप्रयोग लाभालाभं सुग्वं च दुःखं च ।।
__संमारे भूतानां भवति हि मानं तथावमानं च ॥ ३६ ॥
अर्थ-समारमें जितने प्राणी हैं, उन सबको मिलना, विछुरना, नफा, टोटा. मुख, दुग्व, और मान तथा अपमान ( तिरस्कार ) निरन्तर हुआ ही करते हैं। कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संमारघोरकांतार। जीवस्मण संसारोणिचयणयकम्मणिम्मुको॥३७॥
कर्मनिमिनं जीवः हिंदुनि मलाग्योरकांतार ।
जीवम्य न मंसार : निश्चयनय कर्मनिमुक्तः ॥ ३७ ।। अर्थ-यद्यपि यह जीव कमकं निमित्तम मंमाररूपी बड़े भारी वनमें भटकता रहता है परन्तु निश्चयनयमे (यथार्थम) यह कमसे राहत है, और इसीलिये इसका भ्रमणरूप संमारसं कोई सम्बन्ध नहीं है।
१ "संसार अभूदमाणं च "एगा शंकित पाट हमको मिला था, उसे हमने इस तरह लिखना टीक समझा है ।