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गेवेजा। मिच्छत्तसंसिदेण दु वहुसो वि भवहिदीभमिदा ॥ २८॥ ४. निरयायुर्जघन्यादिषु यावत् तु उपरितना तु वेयिकाः । 3. मिथ्यात्वसंश्रितेन तु बहुशः अपि भवस्थितिः भ्रमिता ।। २८ ।।
अर्थ-इस मिथ्यात्वमयुक्त जीवने नरककी छोटीसे छोटी आयुसे लेकर ऊपरके ग्रंवयिक विमान तककी आयु क्रमसे अनेक वार पाकर भ्रमण किया है। भावार्थनरककी कमसे कम आयुसे लेकर ग्रंवयिक विमानकी अधिकसे अधिक आयु तकक जितने भेद हैं, उन सबका क्रमसे भोगना भवपरावर्तन कहलाता है। सब्बे पयडिहिदिओ अणुभागप्पदेसबंधटणाणि । जीवोमिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ॥२९॥
सर्वाणि प्रकृतिस्थिती अनुभागप्रदेशबन्धस्थानानि ।। (जीवः मियान्यवशात भ्रमितः पुनः भाव संसारे ॥ २९ ॥
अर्थ-इम जीवन मिथ्यात्वक वशमें पड़कर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंधक कारणभूत जितने प्रकारके परिणाम वा भाव हैं, उन सबको अनुभव करते हुए भावपरावतनरूप संसारमें अनेक वार भ्रमण किया है। भावार्थ-कमबंधोंके करनेवाले जितने प्रकारके भाव होते हैं, उन सबको क्रमसे अनुभव करनेको भावपरावर्तन कहते हैं। पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अजयदि पाबबुद्धीए ।