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परमद्वेण दु आदा देवासुरमणुवराय विविहेहिं | वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चिंतये णिच्चं ॥७॥ परमार्थेन तु आत्मा देवासुरमनुजराजविविधैः ।
व्यतिरिक्तः स आत्मा शाश्वत इति चिन्तयेत् नित्यं ॥ ७ ॥ अर्थ- शुद्ध निश्चयनयसे ( यथार्थ में ) आत्माका स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिये कि, यह देव, असुर, मनुष्य, और राजा आदिके विकल्पों में रहित है । अधीत् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं-ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है ।
अथ अशरणभावना |
मणिमंतोस हरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमय म्हि || || मणिमन्त्री रक्षाः हयगजरथाश्च सकलविद्या | जीवानां नहि शरणं त्रिषु लोकेषु मरणसमये || ८ ॥ अर्थ-मरते समय प्राणियोंको तीनों लोकोंमें मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ हैं, वे कोई भी शरण नहीं हैं । अर्थात् ये सब उन्हें मरनेसे नहीं बचा सकते हैं।
सग्गो हवे हि दुग्गं भिन्ना देवा य पहरणं वज्जं । अइरावणो गईदा इंदस्स ण विज्जदे सरणं ॥ ९ ॥
स्वर्गे भवत् हि दुर्गे भृत्या देवाश्च प्रहरणं वज्रं । ऐरावणो गजेन्द्रः इन्द्रस्य न विद्यते शरणं ॥ ९ ॥