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दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टा दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।। सिद्धयन्ति चरितभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिद्धयन्ति ॥ १९ ॥ अर्थ-जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं, वे ही यथार्थमें भ्रष्ट हैं। क्योंकि दर्शनभ्रष्ट पुरुषोंको मोक्ष नहीं होता है । जो चारित्रमे भ्रष्ट हैं, वे तो मीझ जाते हैं, परन्तु जो दर्शनमे भ्रष्ट हैं, वे कभी नहीं सीझते हैं । अभिप्राय यह है कि जो सम्यग्दृष्टी पुरुष चारित्रमे रहित हैं, वे तो अपने सम्यक्त्वके प्रभावमे कभी न कभी उत्तम चारित्र धारण करके मुक्त हो जायेंगे। परन्तु जो मम्यक्त्वमे रहित हैं अर्थात् जिन्हें न कभी मम्यक्त्व हुआ और न होगा वे चाहे कैसा ही चारित्र पाले; परन्तु कभी मिद्ध नहीं होंगे-संसारमें रुलते ही रहेंगे।
__ अनुष्टुपश्लोकः । एकोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो । सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥ २० ॥
एकोऽहं निर्ममः शुद्धः ज्ञानदर्शनलक्षणः । शुद्ध कन्वमुपादेयं एवं चिन्तयेत सर्वदा ॥ २० ॥ अर्थ में अकेला हूं, ममतारहित हूं, शुद्ध हूं और ज्ञानदर्शनम्वरूप हूं, इस लिये शुद्ध एकपना ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य ) है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिये।
अथ अन्यत्वभावना । मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिवंधुसंदोहो । जीवस्स ण संबंधो णियकजवसेण वनॊति ॥ २१ ॥