Book Title: Jina pujadhikar Mimansa
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Natharang Gandhi Mumbai

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Page 368
________________ ६ संसार में अपने आत्माके सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है । यह स्वयं ही कर्मोंको खिपाकर जन्म जरा मरणादिके कष्टोंसे वच सकता है । अरुहा सिद्धा आइरिया उबझाया साहु पंचपरमेट्ठी । ते विहु चेदि जम्हा तम्हा आदा हु मे सरणं ||१२|| अर्हन्तः सिद्धाः आचार्या उपाध्यायाः साधवः पञ्चपरमेष्ठिनः । तेपि हि चेष्टन्ते यस्मात् तस्मात् आत्मा हि मे शरणम् ॥ १२ ॥ अर्थ — अरहंत, मिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी इस आत्माक ही परिणाम हैं । अर्थात् अरहंतादि अवस्थाएँ आत्माहीकी हैं। आत्मा ही तपश्चरण आदि करके इन पदोंको पाता है । इसलिये आत्मा ही मुझको शरण हैं । सम्मत्तं सण्णाणं सचारितं च मुत्तवो चेव । चउरो चेहदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणम् ||१३|| सम्यक्त्वं सद्ज्ञानं सच्चारित्र च सत्तपश्चैव । चत्वारि चेष्टन्ते आत्मनि तस्माद् आत्मा हि मे शरणम् ॥ १३॥ अर्थ - इसी तरहसे आत्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकुचारित्र और उत्तम तप ये चार अवस्थाएँ भी होती हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शनादि आत्माहीके परिणाम हैं, इसलिये मुझे आत्मा ही शरण है । अथ एकत्वभावना । एको करेदि कम्मं एको हिंडदि य दीहसंसारे ।

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