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यति श्रीनयनसुखजी विरचित ।
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कतैं रमक राग हरी है । छमक छमक पद पदकी जमक जोरि, नाना भांति काव्यनकी रचना सु करी है । वादिराज मुनि परवाद हरवे के हेत, रचे हैं अनेक ग्रंथ जामैं नय धरी है। ज्ञानकी छरी है लर परी है अज्ञानसेती, सुघरमैं धरी है सुगंधसेती भरी है ॥ ४५ ॥
सिद्धसेन आदि ।
सिद्धसेन भये फेर भये देवदिवाकर, फेर जयवाद फेर सिंहदेव भये हैं । फेर सिंहजय जसोधरजी भये हैं। फेर, सिरीदत्त काणभिक्ष आठवें सु कहे हैं । पात्रकेशरी - मुनीश सिरी वज्रसूरी ईश, महासेन वीरसेन जयसेन लहे हैं । फेर सिरी जटाचार तथा सिरीपाल देव, वागमीक प्रभाकर तिन्हें हम नये हैं ।। ४६ ।
उपसंहार ।
ऐसे ऐसे च्यारौं अनुजोगके कथैया श्रुत- सिंधुके मथैया शिवपंथ पग दीनों है । पर उपगारहेत होय के प्रशांतचेत,
यह पद देखकर गमक नामके कोई साधु समझ लिये है और यहां लिख दिया है । यथार्थ में गमक का अर्थ 'ग्रन्थकर्ताकी कृतिका मर्म शोधकर निकालनेवाले' होता है । वृन्दावनजीने वाग्मी, गमक, वादी और कवि सबको नमस्कार किया है | १ वृन्दावनजीकी गुर्वावलीका अभिप्राय न समझकर नयनसुखजीने यहां भी ऐसी ही भूलकी है । देवदिवाकर कोई जुदे आचार्य नहीं है । सिद्धसेन ही सिद्धसेनदिवाकर कहलाते थे । 'देव' शब्द दिवाकरके साथ नही है, किन्तु गुरुके साथका है यथा- " जयवंत सिद्धसेन सुगुरूदेव दिवाकर | जय वादिसिंह देवसिंह जैति जसोधर ||२४|| " इसी प्रकारसे जयवाद, सिंहदेव और सिंहजयमें भी ' दसरामसरा ' हुआ है । वादिसिंह और देवसिंह चाहिये ।