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जैनशतक ।
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मत्तगयन्द सवैया । __ अन्तकसों न छुटे निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजे । चाहत है चितमें नित ही, सुख होय न लाभ मनोरथ पूजे ॥ तो पन मूढ़ बँध्यो भय आस, वृथा बहु दुःखदवानल! भूजे । छोड़ विचच्छन. ये जड़ लच्छन, धीरज धारि सुखी किन हूजे ॥ ७४॥
धैर्यशिक्षा। ___ जो धनलाभ लिलार लिख्यो, लघु दीरघसुक्र
तके अनुसार । सो लहि है कछु फेर नहीं, मरुदेशके १ ढेर सुमेर सिधार ॥ घाट न बाढ़ कहीं वह होय, कहा कर आवत सोच विचारै । कूप किधों भर सागरमें नर !, गागर मान मिल जल सारे ॥ ७५ ॥
__ आशानदी ।
मनहर कवित्त । मोहसे महान ऊंचे परवतसों ढर आई, तिहूं जग । भूतलको पाय विसतरी है । विविध मनोरथमें भूरि
जल भरी बहु, तिसना तरंगनिसों आकुलता धरी है। परै भ्रम भौंर जहां रागसो मगर तहां, चिंता तटतुंग धर्मवृच्छ ढाय परी है । ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध ताको, धन्य साधु धीरजजहाज चढ़ि तरी है ॥ ७६ ॥ १ जमराज । २ का डर ।
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